Maharana Pratap महाराणा प्रताप का वो सच जो आपसे छिपाया गया

महाराणा प्रताप

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महाराणा प्रताप भारत के वो महान राजा है जिनके बारे में देश का बच्चा बच्चा जनता है पर क्या हम जो जानते है वो पूर्ण सत्य है, आखिर कौन है महाराणा प्रताप क्या सिर्फ हल्दीघाटी का युद्ध है महाराणा प्रताप,

महाराणा प्रताप के बारे में कई भ्रांतियां है जिनको दूर करना बोहोत आवश्यक है,

चित्तौड़ का दूसरा साका होता है 1535 में राणा सांगा की हाड़ी रानी कर्णावती जौहर कर लेती है देहूलिया के बागसिंह के नेत्रत्व में केसरिया होता है, गुजरात का बहादुर शाह चित्तौड़ पर अधिकार कर लेता है लेकिन बाहादुर शाह को हुमायूं के आक्रमण के डर से चित्तौड़ छोड़ के जाना पड़ता है.

पुर्तगालियों से हुई बहस के बाद पुर्तगालियों ने बहादुर शाह को अरबसागर में बुलाकर फेक दिया और वो मर गया,
बहादुर शाह की मौत के बाद चित्तौड़ में मेवाड़ वालो ने बहादुर शाह के अधिकार (कब्जे) को उखाड़ फेंका पर अब मेवाड़ वालो के पास अब यह समस्या थी की चित्तौड़ का शासन किसको दिया जाए, विक्रमादित्य जीनके समय में ही रानी उनका राज्य संभालती थी क्युकी वो इतने योग्य नहीं थे या उदय सिंह को जो विक्रमादित्य के छोटे भाई थे पर उस समय जरूरी यह था की शासन किसी ऐसे हाथो में दिया जाए जो शासन करने योग्य हो क्युकी हालही में चित्तौड़ चार संकटों से गुजरा है, "1527- खनवा का युद्ध में हार का सामना करना पड़ा, 1528- में राणा सांगा की मृत्यु, 1531- में रत्न सिंह की मृत्यु, 1535- में चित्तौड़ का दूसरा शाका हो जाता है, इसीलिए निश्चय किया गया की कुछ समय के लिए वनविर को शासन सौप दिया जाए और फिर उदय सिंह को शासन दिया जाए।

वनविर का शासन और माँ पन्ना का बलिदान

वनवीर ने राजगद्दी पर बैठने के बाद विक्रमादित्य को मार दिया और वह उदय सिंह को भी मारना चाहता था, पर धन्य हो मां पन्ना का जिन्होंने अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने पुत्र (चंदन) का बलिदान दे दिया। "ऐसी महान माता को मेरा प्रणाम"।
यहा एक कहानी प्रचलित है की 1536 में उदय सिंह इतने छोटे होते है कि मां पन्ना उनको एक घास की टोकरी में रख के लेके चली जाती है।ये हमारा दुर्भाग्य है की हमने कहानियों को इतिहास समझने लगे है, क्युकी कहानी के हिसाब से 1536 में उदय सिंह इतने छोटे से बच्चे थे की मां पन्ना उन्हें टोकरी में छिपा के लेके जाती है तथा 9 मई 1540 में उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में महाराणा प्रताप का जन्म होता है। 
राणा उदय सिंह का जन्म 1522 में हुआ था इसीलिए 1536 में उनकी उम्र 14 साल थी और 1540 में उनकी उम्र 19-20 साल रही होगी, यहां सभी बात सच है मां पन्ना का बलिदान चंदन की मृत्यु पर उस समय प्रताप युवा अवस्था में थे।

प्रताप का राजतिलक 

1572 में गोगुंदा में होली के दिन उदय सिंह की मृत्यु होती है, 
राणा उदय सिंह ने भट्टियानी रानी धीरबाई और उनके पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।
चुकीं उस समय हिंदू धर्म में यह नियम था की राजा के उतराधिकारी को राजा के अंतिम संस्कार में जाने की अनुमति नहीं थी, अखेराज सोनगरा (राणा प्रताप के नाना) ने राणा उदय सिंह के अंतिम संस्कार के समय जब राणा प्रताप को देखा तो उन्होंने पूछा की राणा प्रताप यहाँ क्यों आए है क्युकी ज्येष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप है तो स्वाभिक सी बात है की अगले राजा राणा प्रताप बनेंगे तब उन्हे पता चला की अगले राजा राणा प्रताप नही जगमाल बनेंगे, तब उन्होंने चुंडा के वंशजो किशनदाश और सांगा को देखकर कहा की ही चुंडा के वंशजो मोकल के समय से चलता आ रहा है कि मेवाड़ की राजगद्दी का वारिश कौन होगा, कहा गया की जगमाल को राजा न बनाकर राणा को राजा बनाया जाए,इस बात पर चुंडा के वंशज सलूंबर के सम्वंत किशनदाश चुंडावत ने कहा की ये हमारा अधिकार है की मेवाड़ का अगला राजा राणा जी तय नहीं करेंगे मेवाड़ के अगला राजा हम तय करेंगे।  गोगुंदा में मेवाड़ की जनता तथा मेवाड़ के सामंतो द्वारा राणा प्रताप को राजा घोषित किया गया था, महाराणा प्रताप राजस्थान के एकमात्र राजा है जिनको राज्य बपौती में नहीं मिला है ये राजतंत्र में लोकतंत्र की स्थापना है, पूर्व राजा के आदेश के बावजूद जगमाल के स्थान पर 28 फरवरी 1572 को होली के दिन महाराणा प्रताप का राजतिलक जनता द्वारा किया गया, ये उनकी लोकप्रियता को दर्शाता है.

भ्रांतियाँ 

महाराणा प्रताप के बारे में फैली भ्रांतियों के कारण ही कुछ लोग जिन्होंने शायद इतिहास को ठीक से नही पढ़ा वो कहते है की महाराणा प्रताप अकेले पड़ गए थे अकेले पड़ने के बावजूद उन्होंने बोहोत संघर्ष किया, जबकि अगर हम उस समय की परिस्थितियों के बारे में जानेंगे तो पता चलेगा की उस समय बांसवाड़ा के प्रताप सिंह, डूंगरपूर के आशकरण, मेवाड़ के राणा प्रताप, मारवाड़ के चंद्रसेन, सिरोही के राव सुल्तान, जालोर के ताज खां और ईडर के नारायण दास। यदि आप इन सभी स्थान को एक रेखा के रूप में देखेंगे तो पाएंगे की ये मालवा से लेके गुजरात तक का पूरा बॉर्डर है, उस रेखा में जितने राजा थे वो सभी एक साथ थे बस रणनीतियां बदल गई थी इससे पहले राजस्थान के राजाओं की रणनीतियां ये होती थी की सभी राजा एक झंडे के नीचे एक मैदान में जाकर लड़ेंगे जैसे की खानवा के युद्ध में लड़े थे, लेकिन इस बार रणनीतियां बदल गई थी इस बार कहा गया की सब अपने अपने राज्यों के अंदर मुगलों की खिलाफत करेंगे, इसलिए तमाम राजा अपने अपने राज्यों में लड़ रहे थे, यही कारण है अकबर राजस्थान में राणा प्रताप के समय में एक भी युद्ध नहीं जीत पाया।


मुख्य युद्ध 

1581 में मारवाड़ के महाराजा चंद्र सिंह राठौर अकबर से अजमेर छीन लेते है, 1582 में दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप पूरी मुगल सेना को मार देते है और 1583 में दत्तानी के विश्व प्रसिद्ध युद्ध जो की सिरोई के इतिहास का बोहोत ही महत्वपूर्ण युद्ध है सिरोइ के राजा राव सुल्तान मुगलों की पूरी सेना को मार देते है। 
लगातार तीन साल तीन बड़े-बड़े युद्धों को हारने के बाद मुगलों ने ये मान लिया था की राजस्थान में अब कोई हमला नहीं करना है, 1585 के बाद राजस्थान पर मुगलों की ओर से कोई आक्रमण नहीं हुए है, उस समय ऐसा भय व्याप्त हुआ की जो मुगल बादशाह जो काबुल, उड़ीसा,बंगाल, पंजाब, दक्षिण भारत जीत रहा है, पर राज्य के ठीक नीचे राजस्थान पर कोई हमला नहीं कर रहा है।

प्रताप एक संगठन निर्माता 

राणा प्रताप की एक विजय यह है की अकबर को पूरी तरह से बांध के रख दिया था, जैसा की उस समय सभी राज्य एक साथ थे, जब मुगलों की सेना अकबर के मेवाड़ पर हमला करती उसी समय महाराज चंद्रसेन मारवाड़ में विद्रोह कर देते, जब आधी सेना चंद्रसेन के पास जाती तब तक पता चलता सिरोही और जालोर में ताज खां और राव सुल्तान ने मुगलों के कैंप उड़ा दिए, इडर जो की राणा प्रताप का ससुराल भी था वहा के राव नारायणदास भी हमला कर देते थे।
मुगलों के आगरा से सूरत की ओर जाने वाले जो हज यात्री, माल के काफिले तक रोक दिए गए थे, मुगलों के लिए मालवा और गुजरात के पूरे रास्ते बंद कर दिए गए थे।
ये प्रत्यक्ष है की राणा प्रताप अकेले नहीं पड़े थे बल्कि वो तो बोहोत ही बड़े संगठन निर्माता थे।
बूंदी के राजा सुरजन हाड़ा जोकि अकबर के साथ संधि कर चुके थे उनके पुत्र डूडा महाराणा प्रताप के साथ में रहे थे, डोंगर के आस्करण जी जब अकबर की अधिकता स्वीकार कर लेते है उसके बाद उनके बेटे सहसमल राणा प्रताप के साथ हो जाते है ग्वालियर के राजा राम तोमर अपने बेटे सलीवाहन प्रताप सिंह और भवानी के साथ में अगर हल्दी घाटी के युद्ध में रनखेत रहते है, अफगानों का खास व्यक्ति हुतात्मा हाजी खां (अजमेर का सूर हाकिम) यदि प्रताप की तरफ से लड़ने के लिए आते है, भीलों की सेना लेके राणा पूंजा सोलंकी यदि इस युद्ध में आते है, यह सब बताता है की प्रताप में मुगल विरोधी गठबंधन बनाने की पूरी संभावनाएं थी।

उहड़ राठौरो की ख्यात 

जैसलमेर के रावल हरराज का निधन हुआ था, राणा प्रताप और चंद्रसेन जो की उस समय मुगल शासन के खिलाफ लड़ने वाले राजस्थान के सबसे बड़े राजा थे एक साथ इकट्ठे होके रावल हरराज का शोक मानने जा रहे थे पहले वो आबू के पहाड़ों में पहुंचे वहा उन्होंने मुगलों के सारे कैंप उड़ाए, आबू में रहने वाले देवल प्रतिहार राजपूतों को उन्होंने राणा की उपाधि दी क्युकी वो महाराणा प्रताप के सहायक थे तथा मुगलों के खिलाफ लड़ रहे थे। वहा से राणा प्रताप तथा चंद्रसेन दोनो नागाणा पहुंचे वहा उन्होंने तथा राठौरों की कुलदेवी नागणेची माता की धोग लगाई यहां से दोनो हरराज़ के यहां पहुंचे वहा पर शोक प्रकट किया उसके बाद चंद्रसेन पुनः मारवाड़ की ओर आ गए। प्रताप ने सिंध की तरफ आक्रमण किया वहा मुगलों के जितने भी कैंप थे वहा से दंड वसूल किया फिर पुनः मेवाड़ लौट आए। राणा प्रताप राजस्थान की एकता के लिए लड़ने वाले राजा थे भले ही पश्चिमी राजस्थान की कुछ रियासते मुगलों की ओर चली गई थी पर जितनी रियासते थी उन सबको उन्होंने जोड़ के रखा था।

सामाजिक एकता और लोकप्रियता

छुआछूत जो की भारतीय समाज का अकाट्य सत्य है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता जो प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल होते हुए आज भी कही न कही किसी न किसी रूप में जारी है, पहले नही हुआ होगा लेकिन जब ये व्यवस्था जाति व्यवस्था में ढली उसके बाद यह आ गई, उस भील जनजाति को जो समाज के मुख्यधारा में शामिल नही थी उसको मेवाड़ के संघर्ष में सामिल कर देना क्या ये नही दर्शाता की राणा प्रताप मध्यकाल में कितने बड़े समाज सुधारक थे। यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती की प्रताप ने कहा हो की भीलों के लिए अलग से खाना बनाओ हमारे लिए खाने और रहने की वव्यस्था अलग करो तथा युद्ध के मैदान में भील अलग खड़े होंगे हम अलग खड़े होंगे, यकीनन भीलों के साथ कंधे से कंधा मिलाके लड़े होंगे। एक समाज की मुख्यधारा से कटी हुई जाति को यदि समाज के साथ जोड़ रहा थे तथा सर्वोदय के सिद्धांत को लागू कर रहे थे सबका साथ सबका विकास आवश्यक है।
एक जनजाति लुहार जो लोहे के हथियार बनाया करती थी, राणा प्रताप के साथ में कसम खाती है प्रताप ने कहा की जबतक हम मेवाड़ को आजाद नही करवा लेंगे हम एक जगह टिक के नही बैठेंगे, अच्छा खाना नही खायेंगे, अच्छी जगह सोएंगे नही हमेशा संघर्ष करते रहेंगे। लोहार प्रताप के साथ में वही कसम खाते है आज तक वो जनजाति गाड़िया लोहार के रूप में जानी जाती है। 1947 में जवारलाल नेहरू चित्तौड़ में सम्मेलन करते है लोहारों को बुलाते है और उन्हें कहते है की अब तो हम आजाद हो गए है राणा प्रताप का सपना सच हो चुका है अब तो कृपया घर बना कर रहिए पर आज भी कही न कही घूम रहे है राणा प्रताप की उस प्रतिज्ञा को लिए हुए। विश्व के इतिहास में कोई दूसरा राजा शायद ही मिले जो अपनी जनता के बीच इतना लोकप्रिय रहा होगा जनता से इस प्रकार जुड़ा होगा।

युद्ध नीति

राणा उदय सिंह राजस्थान के पहले राजा है जिन्होंने युद्ध की नीति बदल दी थी, राजस्थान में पहले युद्ध किलो से लड़े जाते थे जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह रहता था की अगर कोई दुश्मन देश युद्ध के समय में किले को घेर ले और महल का राशन-पानी खत्म हो जाता था तो संधि के अलावा कोई चारा नहीं रहता था। राणा उदय सिंह ने युद्धो का रुख कीलों से पहाड़ों की ओर मोड़ दिया, पहाड़ों में युद्ध होने के कारण कोई घेर नही पता था। उदय सिंह को उसी नीति को आगे राणा प्रताप उसके बाद उन्ही के पीढ़ी के छत्रपति शिवाजी महाराज महाराष्ट्र में इसी नीति को लागू करते है। कहा जाता है की प्रताप ने जब युद्ध के लिए पहाड़ों को चुना तो से मेवाड़ की पूरी जनता के साथ पहाड़ों में रहने लगे, ताकि मुगलों को जब वो युद्ध करने आए तो किसी भी गांव। से राशन-पानी न मिले, मुगलों की सेनाएं गाओ के अंदर भटका करती थी पर कोई पानी तक पिलाने वाला नही था, जिसके कारण मुगलों को राशन अजमेर के रास्ते से मंगाना पड़ा, अजमेर के रास्तों पर प्रताप द्वारा जगह-जगह चौकियां बना दी गई थी, मुगलों का रहना दुभर था। प्रताप ने उस समय ऐलान करवाया था की कोई भी व्यक्ति मुगलों की किसी भी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नही करेगा।
एक मुगलों के सूबेदार ने उन्ताला के किले के पास एक किसान से कहा की तुम हमारे लिए सब्जियां उगा दो, किसान ने कहा की प्रताप की आज्ञा है की कोई भी मुगलों की किसी प्रताप की सहायता नही करेगा और यदि मैंने सब्जियां उगाई तो मुझे दंड भोगना पड़ेगा। मुगल सूबेदार ने हंसके कहा की तू हमारे पास रहता है क्या कर बिगड़ सकता है राणा प्रताप तेरा और उस किसान ने सब्जियां उगना शुरू कर दीं। जब ये बात राणा प्रताप को पता चली तो उन्हे लगा की आज्ञा सबके लिए बराबर होनी चाहिए, आज्ञाओं का जब उलंघन होने लगता है तो शासन चलना मुश्किल हो जाता है, शासन का लोगों से भय समाप्त हो जाता है, शासन का दंड हमेशा रहना चाहिए। राणा प्रताप अचानक एक दिन हमला करते है मुगल टुकड़ी और उस किसान को मार देते है। ये घटना प्रताप के इस बात को दर्शाती है की यदि सफल होना है तो मेरे साथ में मेरे तरीको से लड़ना पड़ेगा।

धर्मनिरपेक्षता

अक्सर बात जब धर्मनिरपेक्षता की बात आती है तो लोगो की लगता है की हिंदू राजा मुगलों से धर्म के कारण लड़ते थे धर्मनिरपेक्ष नही थे ऐसा बिल्कुल नहीं है। प्रताप कितने धर्मनिरपेक्ष रहे होंगे कि हाकिम खान सूर नाम का एक अफगान उनके हरावल का नेतृत्व कर रहा था जिस बहादुर पठान के बारे में कहा जाता है की वे मर गए थे लेकिन उनका हाथ तलवार पर ही जकड़ा रहा था, जालौन के ताज खान जो एक और अफगान थे जो प्रताप के लिए मुगलों के खिलाफ लड़ रहे थे, भामा शाह और तारा चंद दोनो भाई जैन थे, नसीरुद्दीन नाम का चित्रकार प्रताप के दरबार में था। यकीनन प्रताप अकबर के सांप्रदायिक सोच जो उसकी हिंदू विरोधी नीतियां थी उसके खिलाफ थे वे किसी धर्म के खिलाफ नही थे।

हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप की जीत

अक्सर ये कहा जाता है की हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप हार गए थे इसके बार एक बिच-बचाव का रास्ता निकाला गया और कहा जाने लगा की हल्दी घाटी का युद्ध अनिर्णित था, न प्रताप जीत पाए थे न अकबर जीत पाए थे। 
जबकि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर के दरबार का एक इतिहासकार मौजूद था जिसका नाम था अब्दुल कादूर बदायूंनी जिसने मुदत्क उत्ततवारिक नामक पुस्तक लिखी है जिसमे बदायूंनी वर्णन करता है की इस युद्ध में हमारी सेना की संख्या पाँच हजार थी और अकबर के सेना की संख्या तीन हजार थी, बदायूंनी वर्णन करता है की हल्दीघाटी के उस तंग दर्रे में गोगुंदा के पास us स्थान पर इतना भयंकर युद्ध हुआ था सुरूआती हमला इतना भयंकर था की हमारी सेना पनाश नदी के आस पास सात मील वापस भागी थी यहां यह स्पष्ट दिखता है की भागती कौन सी सेना है हारने वाली या जीतने वाली, बदायूंनी बताता है की जब हमारी सेना भाग रही थी मैंने आशद खान से पूछा आशद खान तीर कहां चलाए जाए ये तो अपने सैनिक भी इधर ही आ रहे है और इनका पीछा करते हुए मेवाड़ के सैनिक भी इधर ही आ रहे है। बदायूंनी थोड़ा कट्टर मुसलमान था, बदायूंनी जब युद्ध के मैदान में आ रहा था तो लोगों ने कहा की तुम कलम चलाने वाले व्यक्ति हो युद्ध के मैदान में जाके क्या करोगे वहा तो तलवारे चलेंगी तो बदायूंनी ने कहा था की जब हिंदुओ का खून बहेगा तब मैं अपनी दाढीके लगाऊंगा। आशद खान ने बदायूंनी से कहा की बदायूंनी आंखे बंद करके तीर चला दोनो तरफ से हिंदू मरेंगे क्युकी सामने जो मानसिंह की टुकड़ी खड़ी थी वो भी हिंदू है और मेवाड़ वाले भी यदि इनका पीछा करते हुए आ रहे है तो वो भी हिंदू है।
बदायूंनी लिखता है की युद्ध समाप्त होने के बाद हम जब गोगुंदा पहुंचे थे तो हममें इतना डर था की रात को राणा प्रताप हमला कर देंगे इसलिए हमने चारो तरफ दीवार चुनवाई थी। यह ये स्पष्ट हो जाता है की कौन जीता था क्युकी डर में तो वही रहता है जो हर हो जीते हुए पक्ष का तो आत्मविश्वास इतना होता है की खुले मैदान में भी सो जाए तो उसे दर नही रहता की कोई हमला कर सकता है। बदायूंनी पुनः लिखता है की जब हमने गोगुंदा से अजमेर तक का रास्ता लिया था जून के महीने में उस भरी गर्मी के अंदर राजस्थान के उन तपते पहाड़ों के बीच में उन राजपूतों ने हमारी हालत खराब कर दी थी गांव-गांव के अंदर भीलों द्वारा हम लूटे जा रहे थे। जीते हुए पक्ष को कोई लूट ले इतिहास में ऐसा कभी किसी ने नहीं सुना होगा।
बदायूंनी लिखता है की जब आशद खान और मानसिंह दोनो अकबर के दरबार में पहुंचे तो अकबर ने दोनो का दरबार में आना बंद करवा दिया था की आज के बाद तुम मुझे मुंह नही दिखाओगे, ऐसा कौन-कौन से राजाओं ने किया है की अपने जीते हुए सेनापति को दरबार से बाहर निकाल दिया हो, बदायूंनी द्वारा लिखी पुस्तक मुदत्क उत्ततवारिक से ये स्पष्ट पता चलता है की हल्दीघाटी का युद्ध कौन जीता था।
जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध होता है जिसमे हार के बाद अकबर को इतना बड़ा ठेस लगता है की अक्टूबर 1576 में अकबर खुद मेवाड़ पर आक्रमण कर देता है, हल्दीघाटी के तुरन्त बाद बादशाह को खुद युद्ध के लिए आना पड़ गया, ये परिस्थितियां सीधे तौर पर यह बताती है की हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की हार हुई थी।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद में प्रताप के इतने ताम्र-पत्र मिले है जो ये बताते है की हल्दीघाटी के आसपास की भूमि प्रताप ने लोगो को दान में दी है, (संथाना का ताम्र-पत्र, मोहियाचार्यं का ताम्र-पत्र, ओढ़ा गांव का ताम्र-पत्र, मंडेरवाला ताम्र-पत्र) ये सभी बाते इस और इशारा करती है की हल्दीघाटी के आस-पास की भूमि प्रताप के पास थी तभी तो दान कर रहे है, यदि हल्दीघाटी का युद्ध प्रताप हार जाते तो हल्दीघाटी के आस-पास की भूमि मुगलों के पास होती और मुगलों की भूमि को प्रताप दान कैसे दे सकते थे। अब यदि आपसे कोई हल्दीघाटी के बारे में बोले तो आप उनको तथ्यों के साथ बता सकते है की हल्दीघाटी का युद्ध प्रताप ही जीते थे।


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